दिव्य प्रकाश का स्पर्श
- lalkitabsirsa
- Dec 6
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एक बार ऐसा हुआ कि एक अंधा व्यक्ति बुद्ध के पास लाया गया।
और वह अंधा व्यक्ति कोई सामान्य अंधा व्यक्ति नहीं था, वह बहुत बड़ा विद्वान और सिद्धान्तवादी होने के साथ तर्क वितर्क करने में बहुत कुशल था।
उसने बुद्ध के साथ तर्क वितर्क करना प्रारम्भ करते हुए कहा ‘लोग कहते है कि प्रश्न का अस्तित्व है और मैं कहता हूं नहीं है। वे लोग कहते है कि मैं अंधा हूं और मैं कहता हूं कि वे लोग सभी भ्रमित हैं। यदि प्रकाश कहीं अस्तित्व में होता तो श्रीमान मुझे भी उपलब्ध कराइये।
जिससे मैं उसका स्पर्श कर सकूं। यदि मैं उसका स्पर्श कर सकता हूं अथवा कम से कम यदि मैं उसका स्वाद ले सकता हूं, अथवा उसे सूंघ सकता हूं अथवा यदि आप प्रकाश को एक गीत की तरह से पढ़े, जिससे मैं उसे सुन तो कम से कम सकता हूं, यह मेरी चार इन्द्रियां हैं और पांचवी इन्द्रिया जिसके बारे में लोग बात करते हैं वह केवल एक कल्पना है। लोग भ्रमित हैं, किसी भी व्यक्ति के पास आंखें नहीं हैं।’
इस व्यक्ति को कायल करना बहुत कठिन था कि प्रकाश का अस्तित्व है, लेकिन प्रकाश का स्पर्श नहीं किया जा सकता, उसके स्वाद को नहीं लिया जा सकता, उसे सूंघा नहीं जा सकता, और न ही उसे सुना जा सकता है।
और यह व्यक्ति कह रहा है कि दूसरे लोग भ्रमित थे, और उसके पास आंखें नहीं हैं। वह एक अंधा व्यक्ति था लेकिन बहुत बड़ा तर्क शास्त्री था। उसने कहा ‘सिद्ध करो कि उनके पास आंखें हैं, तुम्हारे पास इसका प्रमाण क्या है?’
बुद्ध ने कहा ‘मैं कुछ भी नहीं कहूंगा, लेकिन मैं एक वैद्य को जानता हूं और मैं तुम्हें उस वैद्य के पास भेजूंगा। मैं जानता हूं वह तुम्हारी आंखों का उपचार करने में समर्थ हो सकेगा।’
लेकिन उस व्यक्ति ने आग्रह किया ‘मैं तो इस बारे में तर्क करने के लिए आया हूं।’
और बुद्ध ने कहा ‘यही मेरा तर्क है कि वैद्य के पास जाओ।’
उस व्यक्ति को वैद्यराज के पास भेजा गया उसकी आंखों का उपचार किया गया और छ: माह बाद वह देखने में समर्थ हो गया। वह विश्वास ही नहीं कर सकता, वह अति आनंदित था, वह नाचता हुआ बुद्ध के पास आया।
वह खुशी से पागल हो रहा था। वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और कहा ‘आपके तर्क ने ही कार्य किया।’
बुद्ध ने कहा ‘सुना, वह कोई तर्क नहीं था। यदि मैंने तर्क किया होता तो मैं असफल होता, क्योंकि वहां कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनके बारे में तर्क नहीं किया जा सकता। लेकिन उनका अनुभव किया जा सकता है।’
परमात्मा एक तर्क नहीं है, वह तर्क के पार का एक निरूपित निष्कर्ष है। निर्वाण एक तर्क नहीं है, वह एक निष्कर्ष भी नहीं है। वह एक अनुभव है।
जब तक तुम उसका अनुभव न कर लो, उसे समझने का वहां अन्य कोई भी उपाय नहीं है कि वह क्या है। यदि तुम उसका अनुभव नहीं करते हो, तो वह केवल व्यर्थ और अर्थहीन है।





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